Friday, August 29, 2014

रात के अधिंयारे

कलम से____

रात के अधिंयारे
पावं मेरे
अपने आप उठते रहे
उस ओर बढ़ते रहे
झील के उस ओर
जहाँ तू रहता था
होश ही नहीं रहा
मैं जमीन पर हूँ
या आसमां पर
होश आया
देखा चली आई थी
दूर बहुत झील के ऊपर।

सर्द हवाओं के
बीच होंठ थे
कांप रहे
हाथों के पोर थे
जमे से हुए
भीतर की आग थी
जो बुझती न थी
मिलन को तरसती।

मिले थे तुम
इस सफर के
आखिरी छोर पर
बाहें मेरी ओर फैला
इतंजार करते।

होश बहोश थे हमारे
आगोश में थी तुम्हारे
प्यार की तपिश ही काफी थी
हमारे औ' तुम्हारे लिए ...........

//surendrapal singh//

http://spsinghamaur.blogspot.in/
 — with Puneet Chowdhary.
Photo: कलम से____

रात के अधिंयारे
पावं मेरे
अपने आप उठते रहे
उस ओर बढ़ते रहे
झील के उस ओर
जहाँ तू रहता था
होश ही नहीं रहा
मैं जमीन पर हूँ
या आसमां पर 
होश आया 
देखा चली आई थी 
दूर बहुत झील के ऊपर।

सर्द हवाओं के
बीच होंठ थे
कांप रहे
हाथों के पोर थे
जमे से हुए
भीतर की आग थी
जो बुझती न थी
मिलन को तरसती।

मिले थे तुम
इस सफर के
आखिरी छोर पर
बाहें मेरी ओर फैला 
इतंजार करते।

होश बहोश थे हमारे
आगोश में थी तुम्हारे
प्यार की तपिश ही काफी थी
हमारे औ' तुम्हारे लिए ...........

//surendrapal singh//

http://spsinghamaur.blogspot.in/

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