Friday, August 29, 2014

संध्या के संग लौट आना तुम / सोम ठाकुर

मित्रों,

आज मैं आप सभी को एक कविता रसास्वादन के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है कि आप पसंद करेंगे।

संध्या के संग लौट आना तुम / सोम ठाकुर

जाओ, पर संध्या के संग लौट आना तुम
चाँद की किरन निहारते न बीत जाय रात

कैसे बतलाऊँ इस अंधियारी कुटिया में
कितना सूनापन है
कैसे समझाऊँ, इन हल्की सी साँसों का
कितना भारी मन है
कौन सहारा देगा दर्द -दाह में बोलो
जाओ पर आँसू के संग लौट आना तुम
याद के चरन पखरते न बीत जाय रात

हर न सकी मेरे हारे तन की तपन कभी
घन की ठंडी छाया
काँटों के हार मुझे पहना के चली गई
मधुऋतु वाली माया
जी न सकेगा जीवन बीधे-बीधे अंगों में
जाओ पर पतझर के संग लौट आना तुम
शूल की चुभन दुलारते न बीत जाय रात

धूल भरे मौसम में बाज न सकेगी कल तक
गीतों पर शहनाई
दुपहरिया बीत चली, रह न सकेगी कल तक
बालों में कजराई
देर नही करना तुम गिनी -चुनी घड़ियाँ हैं
जाओ पर सपनों के संग लौट आना तुम
भीगते नयन उघार्ते न बीत जाय रात

मेरी डगमग नैया डूबते किनारों से
दुख ने ही बाँधी है
मेरी आशा वादी नगरी की सीमा पर
आज चड़ी आँधी है
बह न जाए जीवन का आँचल इन लहरों में
जाओ, पर पुरवा के संग लौट आना तुम
सेज की शिकन संवारते न बीत जाय रात।

(1966-67 में जब मैं आगरा पावर हाउस में अप्ररेन्टिशप कर रहा था, उस समय हमारे पास आज के जमाने की अपनी आॅडी( बाइसिकल)हुआ करती थी और यौवन के जोश में झर्राटे की दौडती थी। शाम को घरोंदे पर लौटते समय भन अक्सर यह गीत गुनगुनाने लगता था, अपनी ही धुन में। बाद में जब सोम जी के मुखारविंद से यह गीत सुना तबसे यह और भी सुहाना लगता है। वास्तव में वह बहुत रस और रम के इस गीत को गाते थे। बाद में तो फिर कोई मौकों पर यह उनका गीत उनसे कई कवि सम्मेलनों में सुनने का अवसर मिला।)

//surendrapalsingh//
 — with Puneet Chowdhary.
Photo: मित्रों,

आज मैं आप सभी को एक कविता रसास्वादन के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है कि आप पसंद करेंगे।

संध्या के संग लौट आना तुम / सोम ठाकुर

जाओ, पर संध्या के संग लौट आना तुम 
चाँद की किरन निहारते न बीत जाय रात 

कैसे बतलाऊँ इस अंधियारी कुटिया में
कितना सूनापन है 
कैसे समझाऊँ, इन हल्की सी साँसों का
कितना भारी मन है 
कौन सहारा देगा दर्द -दाह में बोलो 
जाओ पर आँसू के संग लौट आना तुम 
याद के चरन पखरते न बीत जाय रात 

हर न सकी मेरे हारे तन की तपन कभी
घन की ठंडी छाया 
काँटों के हार मुझे पहना के चली गई
मधुऋतु वाली माया 
जी न सकेगा जीवन बीधे-बीधे अंगों में 
जाओ पर पतझर के संग लौट आना तुम 
शूल की चुभन दुलारते न बीत जाय रात 

धूल भरे मौसम में बाज न सकेगी कल तक
गीतों पर शहनाई 
दुपहरिया बीत चली, रह न सकेगी कल तक
बालों में कजराई 
देर नही करना तुम गिनी -चुनी घड़ियाँ हैं
जाओ पर सपनों के संग लौट आना तुम 
भीगते नयन उघार्ते न बीत जाय रात 

मेरी डगमग नैया डूबते किनारों से
दुख ने ही बाँधी है 
मेरी आशा वादी नगरी की सीमा पर
आज चड़ी आँधी है 
बह न जाए जीवन का आँचल इन लहरों में 
जाओ, पर पुरवा के संग लौट आना तुम 
सेज की शिकन संवारते न बीत जाय रात।

(1966-67 में जब मैं आगरा पावर हाउस में अप्ररेन्टिशप कर रहा था, उस समय हमारे पास आज के जमाने की अपनी आॅडी( बाइसिकल)हुआ करती थी और यौवन के जोश में झर्राटे की दौडती थी। शाम को घरोंदे पर लौटते समय भन अक्सर यह गीत गुनगुनाने लगता था, अपनी ही धुन में। बाद में जब सोम जी के मुखारविंद से यह गीत सुना तबसे यह और भी सुहाना लगता है। वास्तव में वह बहुत रस और रम के इस गीत को गाते थे। बाद में तो फिर कोई मौकों पर यह उनका गीत उनसे कई कवि सम्मेलनों में सुनने का अवसर मिला।)

//surendrapalsingh//

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