Tuesday, February 24, 2015

अब तो आजा कन्हाई अखिंयाँ पिरान लगीं है

कलम से____
अगंड़ाई फिर से ली
मौसम ने
कोहरे की चादर है छाई
उनकी सुरितया आज भी
नज़र न आई
छिपा छिपी का खेल
है तुमने जो खेला
राधे ढूँढे तुमको
रास रचैया
कैसा है यह मेला?
अब तो आजा कन्हाई
अखिंयाँ पिरान लगीं है
सखियों संग राधे पुकारे
गलियाँ तुझ बिन सूनी पड़ी हैं।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
— with Puneet Chowdhary.
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फूल एक किसी को भा गया जो मैयत पर चढ़ गया।

कलम से____
बागवां की मेहनत रंग ला रही है
बागों में बहार फिर से आ रही है।
हर शाख पर कली एक खिल रही है
देख कर उन्हें मेरी तबीयत मचल रही है।
चम्पा चमेली मोंगरा महक रहा है
गुलाब की कली बस खिल रही है।
तोड़ लूं इस कली को किसी के लिए
आशिकी मन भीतर की बोल रही है।
कली तोड़ आज एक मैं गुनाह न कँरूगा
फूल न बन जाये तब तक इतंजार कँरूगा।
कली गुलाब की हो या फूल दोनों सजेंगे
जब मैं उन्हें देकर पूछूँगा कि ये कंहा लगेंगे।
झट मुँह से उनके यूं निकल जायेगा
जहां तू चाहेगा यह फूल वहां सज जायेगा।
फूल की किस्मत तो देखिए गेसुओं में उनके टंक गया
फूल एक किसी को भा गया जो मैयत पर चढ़ गया।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
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