कलम से _ _ _ _
(बस अभी लिखी गई पार्क की बेन्च पर)
देखा आपने
गुल भी नजर नहीं आते
दो एक यदाकदा हैं दिख जाते
पेडों की शाखों पर पत्तियां हो चलीं पीली
हाँ फूलों के गुच्छे जहां खिलते थे
एक दो फूल वहां दिख जाते हैं।
बागबां के आने के पहले ही
सारे फूल बिक जाते हैं
देवालय में शीष तेरे चढ़ने जाते हैं
खुश तू है या नहीं
पता नहीं लगता
पत्थरों के चेहरे कहाँ खिलते हैं।
हँसीं आती कभी खुद पर
कभी किस्मत को कोस लेते हैं
हम इन्सान कभी अपनी कहा करते हैं
कहने पर आ जायें
आसूँ आखों से गिरने लगते हैं
पत्थरों के चेहरे कहाँ खिलते हैं।
//surendrapal singh//
07222014
http://1945spsingh.blogspot.in/2014/07/blog-post.html
and
http://spsinghamaur.blogspot.in/ — with Ramaa Singh and Puneet Chowdhary.
(बस अभी लिखी गई पार्क की बेन्च पर)
देखा आपने
गुल भी नजर नहीं आते
दो एक यदाकदा हैं दिख जाते
पेडों की शाखों पर पत्तियां हो चलीं पीली
हाँ फूलों के गुच्छे जहां खिलते थे
एक दो फूल वहां दिख जाते हैं।
बागबां के आने के पहले ही
सारे फूल बिक जाते हैं
देवालय में शीष तेरे चढ़ने जाते हैं
खुश तू है या नहीं
पता नहीं लगता
पत्थरों के चेहरे कहाँ खिलते हैं।
हँसीं आती कभी खुद पर
कभी किस्मत को कोस लेते हैं
हम इन्सान कभी अपनी कहा करते हैं
कहने पर आ जायें
आसूँ आखों से गिरने लगते हैं
पत्थरों के चेहरे कहाँ खिलते हैं।
//surendrapal singh//
07222014
http://1945spsingh.blogspot.in/2014/07/blog-post.html
and
http://spsinghamaur.blogspot.in/ — with Ramaa Singh and Puneet Chowdhary.
//surendrapal singh//
07232014
http://1945spsingh.blogspot.in/
07232014
http://1945spsingh.blogspot.in/
and
http://spsinghamaur.blogspot.in/
http://spsinghamaur.blogspot.in/
No comments:
Post a Comment