कलम से _ _ _ _
हम बंधन मे बधंते जाते हैं,
मन ही मन अकुलाते हैं,
कुंठा,आक्रोश, अशांति
घनघोर छाने लगती है,
रास्ते बंद सब हो जाते हैं,
फिर भी बंधन मन भाते हैं।
देखो, समझो, लो जीवन से सीख,
पैदा न हो मन मे कोई खीज,
हर दिन को समझो त्योहार यहाँ
कभी दूज और कभी तीज ।
सात रंगों से सजे प्रकृति,
सात रंग की होती सरगम,
सप्तपदी से ही ग्रहस्थ जीवन,
पर स्वीकार नही कोई बंधन।
बाँधा नहीं फिर भी किसी ने,
परिभाषित न हो पाई सरगम,
कितने सुंदर राग-रागिनी,
स्वछंद, मुक्त हो करते अभिनदंन,
नहीं है, कोई इन पर बंधन ।
फिर बंधन से हम क्यों बिधंते जाते,
बंधन मे क्यों हैं बधंते जाते?
//surendrapalsingh//
07 28 2014
http://1945spsingh.blogspot.in/
and
http://spsinghamaur.blogspot.in/ — with Puneet Chowdhary.
हम बंधन मे बधंते जाते हैं,
मन ही मन अकुलाते हैं,
कुंठा,आक्रोश, अशांति
घनघोर छाने लगती है,
रास्ते बंद सब हो जाते हैं,
फिर भी बंधन मन भाते हैं।
देखो, समझो, लो जीवन से सीख,
पैदा न हो मन मे कोई खीज,
हर दिन को समझो त्योहार यहाँ
कभी दूज और कभी तीज ।
सात रंगों से सजे प्रकृति,
सात रंग की होती सरगम,
सप्तपदी से ही ग्रहस्थ जीवन,
पर स्वीकार नही कोई बंधन।
बाँधा नहीं फिर भी किसी ने,
परिभाषित न हो पाई सरगम,
कितने सुंदर राग-रागिनी,
स्वछंद, मुक्त हो करते अभिनदंन,
नहीं है, कोई इन पर बंधन ।
फिर बंधन से हम क्यों बिधंते जाते,
बंधन मे क्यों हैं बधंते जाते?
//surendrapalsingh//
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यह मेरी सुदंर तम रचनाओं में से एक है।
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