Wednesday, July 16, 2014



कलम से _ _ _ _


आते जाते
गली के इस कोने से उस कोने तक
निगाह एक जगह लगी रहती थी
वह खिडकी कब खुलेगी
उस दरवाजे से वो कब निकलेंगीं
ऐसा भी होता था
न कभी खिडकी
न कभी दरवाजा ही खुला करता था
समझ लेता था मैं कि वो नासाज हैं
या घर में किसी और की तबीयत खराब है।

इधर कुछ ऐसा हुआ
बहुत दिनों तक
कुछ न दिखा
न कोई रौनक
न कोई हलचल
मैं भीतर ही भीतर
बहुत बेचैन हुआ
पता जब किया तो
पता यह लगा
वो चले गये हैं दूसरे शहर
न लौट पाएगें इस रहगुजर।

सुन के,
मैं सन्न सा रह गया
करता क्या
अफसोस में हाथ मलता रह गया।

वो यूं चले गये
दुनियां मेरी वीरान क्यों कर गये?

//surendrapal singh//

07162014

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