Thursday, January 29, 2015

जीवन बस चलने का नाम........ चलना ही इसका काम......

कलम से____
लंबा सफर तय करके
पहुँच पाए हैं
आज हम यहाँ
खेतों को कैसे सींचा जाता था
घर का काम काज कैसे चलता था
मरु में पानी की तलाश में
हिरन कैसे भटका करता था
दूर दूर से सिर पर
पानी मटकों गगरी कलशों में लाना पड़ता था
महिलाओं की
कहारों की
यही कहानी है
गाँव का जीवन
बस पचास साल पहले तक
यही हुआ करता था
पर जैसा भी था
मेरा अपना था
मन को भाता था
बातें घर की
अपने मन की
पनघट पर हो जाती थीं
अब तो न कुछ कह पाते
और न कुछ सुन पाते हैं
बहरे गूँगे
से बस हो जाते हैं
कैसे कैसे रूप
यहाँ देखने को मिल जाते हैं
जीवन बस चलने 
का नाम
चलना ही इसका काम......
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
— with Puneet Chowdhary.
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  • Ajay Kr Misra Bahut khoobsurat chitran kiya hai aapne, bhavpurn prastuti.
    Subhprabhat, Sir.
    11 hrs · Unlike · 3
  • Surinder Gera Very good morning.Very lucky to reach here
    9 hrs · Unlike · 1
  • Rajan Varma सुन्दर रचना के साथ नकीं किया उतना ही खूबसूरत छाया-चित्र- उन मरहलों अौर लम्बी यात्रा के पड़ावों को दर्शाता हुआ; 
    थोड़ा है, थोड़े की ज़रुरत है- एक वोह दौर था,
    काफ़ी है, बस थोड़ा अौर ज़रुरत है- ये आज का दौर है;
    9 hrs · Unlike · 2
  • Dinesh Singh बहुत ही सुंदर पेशकश श्रेष्ठ
    9 hrs · Unlike · 2
  • Ram Saran Singh महोदय । स्नातकोत्तर पूरा करने तक जीवन गाँव में ही बीता था । विश्वविद्यालय जाने से पूर्व के वर्षों में गहन कृषि कार्य करना पड़ा था । आपकी इस रचना ने मुझे पिछला जीवन याद दिला दिया । कष्ट था पर सबका जीवन भी इसी तरह चलता था अतः कुछ पता न चल पाता था । वैसे मैं साल में एक या दो बार गाँव जाता हूँ पर बहुत कुछ नहीं बदला है । जो कुछ बदल पाया है वह स्वतः प्रक्रिया के तहत हुआ है, सरकार का दख़ल कम रहा है । पर जो है स्वीकार करने योग्य है । धन्यवाद ।
    8 hrs · Unlike · 3
  • S.p. Singh महोदय,

    रात सोते समय विचार कौंधा कि किस तरह कुओं से चमड़े के बने हुए पुर और बैलों से दायं कर, रहट से, ढेंकुली से और न जाने किस किस नायाब तरीकों से पानी से खेती सिंचित की जाती थी। घर के लिए गाँव में किस तरीके से बाल्टी, कलशों से पानी भरा जाता था। राजस्
    थान में बहू बेटियों को दूर दूर तक पानी की तलाश में जाना पड़ता था तब कहीं दो बूँद पानी पीने को मिलता था।मुझे आज भी याद है हमारी हवेली में एक कुआँ था जिसका पानी कडुआ था पर अरहर की दाल उसमें बहुत अच्छी तरह गलती थी। पीने और नहाने इत्यादि के लिए पानी एक धीमर(कहारों) का परिवार एक गाँव के बीच से भर कर लाते थे। बडे बडे पीतल और ताबें के जंगाल हुआ करते थे पानी उसमें भरा रखा रहता था। कितना कठिन हुआ करता था जीवन। काम हुआ है बहुत हुआ है पिछले सालों में अगर यही नेता ईमानदार होते तो दोगुना होता। पानी हमारी मुश्किल बनने वाला है फिर से एक बार।बहुत बडी कीमत चुकानी पडेगी समाज को इस पीने वाले पानी की। यह पीढी अभी यह नहीं समझ पा रही है।
    8 hrs · Edited · Like · 2
  • BN Pandey Hum log jivan Ki race me etanaa Aage nikal chuke Hai Ki N to pichhe ka raastaa pataa Hai Aur N kuchh sochane samajhane Ke liye Samay...Phir Bhi Jub Kahi Se en baato Ki jikr Hoti Hai to Anaayaas hi Mun Ke Bhiter ek jaane - Anjaane Ajeeb so Tees uthati Hai...ESE kyaa kahe...
    8 hrs · Unlike · 1
  • Chadha Vijay Kumar बहुत ही सुंदर पेशकश आपकी इस रचना ने मुझे पिछला जीवन याद दिला दिया
    7 hrs · Unlike · 1

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