Sunday, January 18, 2015

हर चलती सांस पर लगता सांस अब निकलती है, पहुँचे मिट्टी कैसे गाँव सोच तबीयत मचलती है।

कलम से____
मैं अपना नहीं दोस्तों का दर्द हूँ बांट रहा
कह कर छोड़ा घरवार अभी मैं जा रहा।
दूर होते चले गए रिश्ते नाते सब छूट गए
लौटना चाहते हुए भी हम लौट न आ पाए।
पैसा कमाया काम धंधा जमाया इसी में रह गए
घर बसाया यह लाये कभी वो इसी में लगे रहे।
इतनी दूर हम आ गए अब यहाँ के होकर रह गए
बच्चे गाँव जाना चाहते नहीं, वहाँ कभी नहीं गए।
अब सब कहते हम यहीं रहेंगे, जाना है तुम जाओ
न जमीं अपनी न आसमां अपना कोई बतलाओ।
न जाना अपनी जमीन से बाबू कहते कहते मर गए
गलती थी करी जो हम सबको छोड़ यहाँ आ गए।
होता जब दंगा फसाद नहीं दिखता कोई भी अपना पास
बहुत घबराता है दिल लौट गाँव जाने को बहुत है करता।
क्या कहें क्या करें समझ कुछ न अब आए
है सब छूट गया लौट के उल्लू घर कैसे को आए।
हर चलती सांस पर लगता सांस अब निकलती है
पहुँचे मिट्टी कैसे गाँव सोच तबीयत मचलती है।
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
— with Puneet Chowdhary.
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  • Shravan Kumar Sachan Sunder. ..very true
  • Rajan Varma बच्चे एक बार पढ़ाई अथवा काम के सिलसिले में निकले तो बस फ़िर निकले ही समझो; चाहे वोह शहर गये हों अथवा समंदर पार- कहीं से भी लौटना आसां नहीं; बड़े शहरों में जमना मुश्किल ज़रूर है पर एक बार टिक गया तो छोड़ना भी उतना ही दुश्वार!!
    मेरा तो गाँव से कभी खास नाता नहीं रहा- ज़मीन थी जो पिताश्री अपने रहते ही बेच गये थे- पर उक्त तथ्य को जानते-समझते हुये ही मैंने एक conscious decision लिया था career की शुरुआत में- १९८१- जब मेरे मामू जो अमेरिका में स्थाई निवासी हो गये थे- ने आॅफ़र दिया कि आ जाअो अमेरिका मैं तुम्हें scholarship पर बुलाने में सक्षम हुँ!!
    मैंने तब बहुत विनम्रता से, सोच-समझ कर ये आॅफ़र ठुकरा दिया- कि नहीं मामा श्री- मुझे हिंदुस्ताँ छोड़ के कहीं नहीं जाना; मैं अपने इस ITI की नौकरी से ही प्रसन्न हूँ; अौर यकीन मानिये- मैंने आज तक उस conscious decision को कभी regret नहीं किया!!
  • S.p. Singh बहुत सुंदर। एक वाकया अब मैं अपने जीवन से।

    मेरे बाबूजी ने मेरी नौकरी की हदबंदी कर दी थी गाजियाबाद से बनारस और देहरादून से झांसी तक। कहते थे कहीं भी इस बीच रहोगे पहुँच जाऊँगा इस हदबंदी के बाहर नहीं जाऊँगा और न ही कुछ मदद कर पाऊँगा। मैनें भी प्रयास किया कि इस हदबंदी मे रहूँ। भाग्य देखिये नौकरी के आखिरी तीन चार साल बंगलौर में काटने पड़े।
    यहाँ घर भी मिला तो फिर उसी हदबंदी में।
    परंतु मैं जब तक बंगलौर में रहा वह हमेशा यही कहते रहे कि पता नहीं अब कब मुलाकात होगी।
  • S.p. Singh वैसे यह कविता लिखते समय मन में हमेशा अपने Ram Saran Singh ही आ जाते रहे।
  • Rajan Varma सत्य है; पेड़ बड़ा हो जाने पर जड़ों से नहीं बिछड़ सकता!!
  • Ram Saran Singh आदरणीय । फ़ेस बुक पर सम्पर्क देर से हुआ । काश आपके बेंगलूर रहने के दौरान मुलाक़ात होती । रही बात ज़मीं से जुड़ने की तो अब तक़रीबन सबके साथ यही हो रहा है । राजन वर्मा सर ने सही कहा है और विदेश का प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि मिट्टी की सुगंध खींचती है । मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है । " पढ़िए ज़रूर " यद्यपि स्वर्णमयी लंका, न मे रोचते लक्ष्मणः , जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी " । चलिए भावनात्मक रूप से जुड़ाव रखिए । धन्यवाद ।
  • S.p. Singh बहुत सुंदर सिंह साहब मैं 2000से2003 में ही बैंगलोर में रहा हूँ बाकी जीवन का मुख्य हिस्सा अवध में तकरीबन तीस वर्ष गुज़रा है।
    लौट कर फिर गाजियाबाद में कभी जीवन में सोचा भी नही था रहूँगा रहना पड़ रहा है। अब यहीं अच्छा लगने लगा है। हाँ, गाँव की हुड़क बीच बीच में उठती है तो वहाँ चले जाते हैं कुछ रोज़ के लिए। बस अब जीवन ऐसे ही चल रहा है।
  • Ram Saran Singh चलिए महोदय । आना जाना बनाए रखिए । सद्भाव बड़ी ऊँची चीज़ है ।
  • Sp Tripathi सब कुछ जाने से बेहतर है कुछ तो बचा रहे ।
  • Ram Saran Singh एस पी त्रिपाठी सर का कहना भी ठीक है ।
  • Dinesh Singh बहुत ही उम्दा रचना श्रेष्ठ
  • Prem Prakash Goswami हर चलती सांस पर लगता सांस अब निकलती है
    पहुँचे मिट्टी कैसे गाँव सोच तबीयत मचलती है।
  • S.p. Singh धन्यवाद । सभी मित्रों का आभार।

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