Tuesday, September 9, 2014

टीका टिप्पणी का सामना करें

सुप्रभात मित्रों।
Good morning friends.
09 10 2014

कल रात यह आर्टिकल पढ़ने को मिला आप सभी के साथ बांट रहा हूँ इस आशय से अच्छा लगे तो सुदंर नहीं तो कोई बात नहीं।

टीका टिप्पणी का सामना करें :-

"बचपन से एक लोककथा सुनता आया हूं । एक गांव में रामू नाम का एक गरीब इंसान रहता था। दिन भर वह जी तोड़ परिश्रम करता, तब कहीं जाकर उसे तथा उसके परिवार को दो वक्त की रोटी नसीब होती थी। एक साल गांव में बड़ा अकाल पड़ा। बरसात हुई ही नहीं। फसल नहीं पकी और रामू को कहीं मजदूरी भी नहीं मिली। खाने के लाले पड़ गए। मजबूर होकर रामू ने अपना घोड़ा बेचने का निर्णय लिया। अपने बेटे के साथ घोड़ा लेकर रामू बाजार की ओर चल पड़ा। उसने अपने बेटे को घोड़े पर बिठाया और खुद घोड़े की लगाम पकड़कर चलने लगा। रास्ते में उसे एक बुजुर्ग मिले। रामू को पैदल चलता देखकर उन्होंने उसके बेटे से कहा, 'बेटा, तुम्हारे पिता बूढ़े हैं। उन्हें घोड़े पर बिठाकर तुम्हें पैदल चलना चाहिए । तुम तो दौड़ सकते हो।' रामू के बेटे को यह बात जंच गई । उसने जबरदस्ती से अपने पिता को घोड़े पर बिठाया।

थोड़ी दूर दोनों गए ही थे कि कुछ और पहचान वाले मिल गए । वे रामू की खिल्ली उड़ाते हुए हंसने लगे और कहने लगे, 'कैसे बाप हो ! अपने बेटे को पैदल चला रहे हो और खुद घोड़े पर आराम से बैठे हो? उनकी बातें सुनकर बाप-बेटा दोनों चकरा गए। रामू घोड़े पर से उतर गया और दोनों घोड़े की दोनों ओर से पैदल चलने लगे। जरा आगे गए ही थे कि बाजू में खड़े कुछ लोगों में से एक की जरा जोर की आवाज आई, 'वो देखो, दो मूर्ख जा रहे हैं। साथ में घोड़ा होते हुए भी दोनों पैदल चल रहे हैं। दोनों घोड़े पर क्यों नहीं बैठते? रामू और उसके बेटे ने अपनी गलती मान ली और दोनों घोड़े पर बैठकर जाने लगे।

जरा दूर तक गए ही थे कि कुछ और लोग मिले। वे रामू का धिक्कार कर, कहने लगे, 'कैसा आदमी है? बेचारे जानवर को सता रहा है। हम उसकी जगह पर होते तो इस घोड़े को अपने कंधे पर उठाकर ले जाते। रामू ने और उसके बेटे ने यह बात सुनी और बिना आगा-पीछा सोचे, घोड़े के अगले तथा पिछले पैर रस्सी से बांधे और उसे कंधों पर उठाकर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में चलते-चलते नदी देखी तो घोड़ा लात मारने लगा। उसे प्यास लगी थी। दोनों घोड़े को संभाल नहीं सके और वह पानी में गिर गया। लात मारते -मारते उसके पैरों की रस्सी ढीली पड़ गई और वह भाग गया। यह पूरी घटना कुछ लोग मजे ले लेकर देख रहे थे। हंसते हुए कहने लगे, 'देखो, कैसे मूर्ख हैं दोनों। एक घोड़ा भी ठीक तरह से बाजार तक नहीं ले जा सके। उसे बेचना तो बड़े दूर की बात है।' रामू और उसका बेटा, दोनों निराश होकर घर लौट गए।

आप तो समझ ही गए होंगे कि मैंने यह कहानी आपको क्यों सुनाई है । हमारे आस-पास टीका-टिप्पणी करनेवाले लोग भरे पड़े रहते हैं। दूसरों के किए - कराए पर टीका करना ही उनका काम होता है, मगर हमें व्यावहारिक रूप से चतुर होना चाहिए। यह व्यावहारिक चतुरता आखिर क्या चीज है ? दूसरों की बातें किस सीमा तक माननी चाहिए, इसकी मर्यादा मालूम होना, अपने शब्दों का सोच-समझकर, सावधानी से प्रयोग करना और इस बात का ध्यान रखना कि कहां रुकना है, इन सबको मिलकर ही व्यावहारिक चतुरता बनती है। हमारे रोजमर्रा के जीवन में कभी न कभी हमें टीका-टिप्पणी करनेवाले लोगों का सामना करना ही पड़ता है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि उनकी टीका-टिप्पणी से बिना लड़खड़ाए, उससे प्रेरणा ली जाए ।

विधायक टीका-टिप्पणी हमारे लिए बडी फायदेमंद होती है। नकारात्मक टीका अज्ञान तथा ईर्ष्या के कारण होती हैं। विषय टिप्पणी अगर अज्ञान के कारण हो रही हो, तो उचित जानकारी देकर, टीका-टिप्पणी के गलत होने का एहसास दिलाया जा सकता है, किंतु टीका-टिप्पणी अगर ईर्ष्या के कारण हो रही हो, तो हमें ध्यान में रखना चाहिए कि वह हमारी छिपी प्रशंसा है।

कई बार ऐसा होता है कि बिना कुछ कारण के, हम पर टीका-टिप्पणी की जाती है। उचित कारणों के लिए की गई टीका-टिप्पणी हमें स्वीकार कर लेनी चाहिए, किंतु गलत कारणों की वजह से होनेवाली टीका-टिप्पणी शांति के साथ नजरअंदाज करना ही सबसे आसान विकल्प है। दूसरों के मतों पर हम अपनी कीमत तय न करें, यह ठीक है, किंतु दूसरों के विचारों पर गौर करना तो जरूरी है। इससे यह होता है कि हम टीका-टिप्पणी हजम कर सकते हैं और प्रशंसा से फूल भी फूल नहीं जाते हैं ।

इतना विवेचन सुनने के बाद, अब तो आप समझ ही गए होंगे कि दूसरों की टीका-टिप्पणी को कितनी अहमियत देनी चाहिए। हम कुछ भी करें, उस पर नुक्ता चीनी तो होगी ही। एक के विचारों पर चलें, तो दूसरा टीका-टिप्पणी करेगा ही। इसलिए, हमें स्वयं तय करना चाहिए कि दूसरों की कही बातें हम कहां तक मान लें और कौन-सी बातों को नजरअंदाज करें। कहीं ऐसा न हो कि लोगों के उल्टे-सीधे सलाह-मशविरों के कारण हमारी हालत भी रामू और उसके बेटे जैसी हो और हम कहीं के न रहें। इसलिए, समझदारी इसी में है कि लोगों के सुझाव कहां तक मानने हैं, इसकी सीमा हम स्वयं ही तय कर लें और उसके बाद अपने मन की ही करें।"

वेणूगोपाल धूत

(वीडियोकॉन' के चेयरमैन वेणूगोपाल धूत एक चिंतक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं।)
Photo: सुप्रभात मित्रों।
Good morning friends.
09 10 2014
 
कल रात यह आर्टिकल पढ़ने को मिला आप सभी के साथ बांट रहा हूँ इस आशय से अच्छा लगे तो सुदंर नहीं तो कोई बात नहीं।

टीका टिप्पणी का सामना करें :-

"बचपन से एक लोककथा सुनता आया हूं । एक गांव में रामू नाम का एक गरीब इंसान रहता था। दिन भर वह जी तोड़ परिश्रम करता, तब कहीं जाकर उसे तथा उसके परिवार को दो वक्त की रोटी नसीब होती थी। एक साल गांव में बड़ा अकाल पड़ा। बरसात हुई ही नहीं। फसल नहीं पकी और रामू को कहीं मजदूरी भी नहीं मिली। खाने के लाले पड़ गए। मजबूर होकर रामू ने अपना घोड़ा बेचने का निर्णय लिया। अपने बेटे के साथ घोड़ा लेकर रामू बाजार की ओर चल पड़ा। उसने अपने बेटे को घोड़े पर बिठाया और खुद घोड़े की लगाम पकड़कर चलने लगा। रास्ते में उसे एक बुजुर्ग मिले। रामू को पैदल चलता देखकर उन्होंने उसके बेटे से कहा, 'बेटा, तुम्हारे पिता बूढ़े हैं। उन्हें घोड़े पर बिठाकर तुम्हें पैदल चलना चाहिए । तुम तो दौड़ सकते हो।' रामू के बेटे को यह बात जंच गई । उसने जबरदस्ती से अपने पिता को घोड़े पर बिठाया।

थोड़ी दूर दोनों गए ही थे कि कुछ और पहचान वाले मिल गए । वे रामू की खिल्ली उड़ाते हुए हंसने लगे और कहने लगे, 'कैसे बाप हो ! अपने बेटे को पैदल चला रहे हो और खुद घोड़े पर आराम से बैठे हो? उनकी बातें सुनकर बाप-बेटा दोनों चकरा गए। रामू घोड़े पर से उतर गया और दोनों घोड़े की दोनों ओर से पैदल चलने लगे। जरा आगे गए ही थे कि बाजू में खड़े कुछ लोगों में से एक की जरा जोर की आवाज आई, 'वो देखो, दो मूर्ख जा रहे हैं। साथ में घोड़ा होते हुए भी दोनों पैदल चल रहे हैं। दोनों घोड़े पर क्यों नहीं बैठते? रामू और उसके बेटे ने अपनी गलती मान ली और दोनों घोड़े पर बैठकर जाने लगे।

जरा दूर तक गए ही थे कि कुछ और लोग मिले। वे रामू का धिक्कार कर, कहने लगे, 'कैसा आदमी है? बेचारे जानवर को सता रहा है। हम उसकी जगह पर होते तो इस घोड़े को अपने कंधे पर उठाकर ले जाते। रामू ने और उसके बेटे ने यह बात सुनी और बिना आगा-पीछा सोचे, घोड़े के अगले तथा पिछले पैर रस्सी से बांधे और उसे कंधों पर उठाकर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में चलते-चलते नदी देखी तो घोड़ा लात मारने लगा। उसे प्यास लगी थी। दोनों घोड़े को संभाल नहीं सके और वह पानी में गिर गया। लात मारते -मारते उसके पैरों की रस्सी ढीली पड़ गई और वह भाग गया। यह पूरी घटना कुछ लोग मजे ले लेकर देख रहे थे। हंसते हुए कहने लगे, 'देखो, कैसे मूर्ख हैं दोनों। एक घोड़ा भी ठीक तरह से बाजार तक नहीं ले जा सके। उसे बेचना तो बड़े दूर की बात है।' रामू और उसका बेटा, दोनों निराश होकर घर लौट गए।

आप तो समझ ही गए होंगे कि मैंने यह कहानी आपको क्यों सुनाई है । हमारे आस-पास टीका-टिप्पणी करनेवाले लोग भरे पड़े रहते हैं। दूसरों के किए - कराए पर टीका करना ही उनका काम होता है, मगर हमें व्यावहारिक रूप से चतुर होना चाहिए। यह व्यावहारिक चतुरता आखिर क्या चीज है ? दूसरों की बातें किस सीमा तक माननी चाहिए, इसकी मर्यादा मालूम होना, अपने शब्दों का सोच-समझकर, सावधानी से प्रयोग करना और इस बात का ध्यान रखना कि कहां रुकना है, इन सबको मिलकर ही व्यावहारिक चतुरता बनती है। हमारे रोजमर्रा के जीवन में कभी न कभी हमें टीका-टिप्पणी करनेवाले लोगों का सामना करना ही पड़ता है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि उनकी टीका-टिप्पणी से बिना लड़खड़ाए, उससे प्रेरणा ली जाए ।

विधायक टीका-टिप्पणी हमारे लिए बडी फायदेमंद होती है। नकारात्मक टीका अज्ञान तथा ईर्ष्या के कारण होती हैं। विषय टिप्पणी अगर अज्ञान के कारण हो रही हो, तो उचित जानकारी देकर, टीका-टिप्पणी के गलत होने का एहसास दिलाया जा सकता है, किंतु टीका-टिप्पणी अगर ईर्ष्या के कारण हो रही हो, तो हमें ध्यान में रखना चाहिए कि वह हमारी छिपी प्रशंसा है।

कई बार ऐसा होता है कि बिना कुछ कारण के, हम पर टीका-टिप्पणी की जाती है। उचित कारणों के लिए की गई टीका-टिप्पणी हमें स्वीकार कर लेनी चाहिए, किंतु गलत कारणों की वजह से होनेवाली टीका-टिप्पणी शांति के साथ नजरअंदाज करना ही सबसे आसान विकल्प है। दूसरों के मतों पर हम अपनी कीमत तय न करें, यह ठीक है, किंतु दूसरों के विचारों पर गौर करना तो जरूरी है। इससे यह होता है कि हम टीका-टिप्पणी हजम कर सकते हैं और प्रशंसा से फूल भी फूल नहीं जाते हैं ।

इतना विवेचन सुनने के बाद, अब तो आप समझ ही गए होंगे कि दूसरों की टीका-टिप्पणी को कितनी अहमियत देनी चाहिए। हम कुछ भी करें, उस पर नुक्ता चीनी तो होगी ही। एक के विचारों पर चलें, तो दूसरा टीका-टिप्पणी करेगा ही। इसलिए, हमें स्वयं तय करना चाहिए कि दूसरों की कही बातें हम कहां तक मान लें और कौन-सी बातों को नजरअंदाज करें। कहीं ऐसा न हो कि लोगों के उल्टे-सीधे सलाह-मशविरों के कारण हमारी हालत भी रामू और उसके बेटे जैसी हो और हम कहीं के न रहें। इसलिए, समझदारी इसी में है कि लोगों के सुझाव कहां तक मानने हैं, इसकी सीमा हम स्वयं ही तय कर लें और उसके बाद अपने मन की ही करें।"

वेणूगोपाल धूत

(वीडियोकॉन' के चेयरमैन वेणूगोपाल धूत एक चिंतक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं।)
  • Ram Saran Singh महोदय यह कहानी परिचित है । दुनिया आपको किसी भी तरह चलने नहीं देती । हर काम आलोचना से गुज़रता है । पुरानी कहानी याद दिलाने के लिए धन्यवाद ।
    4 hours ago · Unlike · 3
  • Harihar Singh बहुत सुन्दर।See Translation
    4 hours ago · Unlike · 1
  • Rajan Varma ये सत्य है कि आप कुछ भी करिये- अच्छा अथवा बुरा- आलोचना तो होनी ही है; जैसा की आपकी विवेचना में स्पष्ट किया गया कि ये हमें तय करना है किसे तवज्जोह दे कर आत्मसात करना है अौर किसे सुनी-अनसुनी कर आगे बढ़ जाना है। अगर हर राह-चलते भौंकते कुत्तों पर रूक कर तवज्जोह देनी शूरू करें तो शायद सफ़र कभी पूरा ही न हो पाये; the barking, stray street dogs are best left alone- to bark their way out!
    3 hours ago · Unlike · 1
  • Brahmdeo Prasad Gupta just ignore the unwanted comments.
    3 hours ago · Unlike · 1
  • Suresh Chadha Dosto SuprabhatamSee Translation
    3 hours ago · Unlike · 1
  • Arun Kumar Singh सर नमस्ते ,
    2 hours ago · Unlike · 1
  • S.p. Singh नमस्कार।
  • Sp Tripathi हमने अभी हाल में एक विचारपूर्ण पोस्ट में मैंने पढ़ा कि अक्सर लोग यह सोचकर कि लोग क्या कहेंगे या समझेंगे , अपनी सही भावनाएँ भी दबाते है । ऐसा नहीं करना चाहिए ।See Translation
    2 hours ago · Like · 1

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