Thursday, November 13, 2014

लाशों के इस ढ़ेर

कलम से____
लाशों के इस ढ़ेर पर कैसे मैं चलूँ
मुर्दों के शहर में आकर अब क्या करूँ !!
नित नए इरादे लेकर आते हैं कुछ लोग
सफल होते हैं कुछ हो जाते कुछ फेल !!
अरमान थे जितने मिट्टी मिल गए
काम हमारे सब बीच में ही रह गए !!
कहाँ तक मैं इनकी आस बनूँ
इनके लिए मैं अब क्या क्या न करूँ !!
घर से दूर बहुत कुछ हैं आ गए
अपना सब कुछ यहाँ आकर भूल गए !!
वापसी इनकी मुमकिन नहीं होगी
राख भी सरजमीं अब न पहुंचेगी !!
जिन्दा देखने में नजर आते हैं जरूर
आकर शहर इनको हो गया है गुरूर !!
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
— with Puneet Chowdhary.
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