Saturday, November 29, 2014

सूरज देर से निकले


कलम से_____

सूरज देर से निकले
तो क्या
यहाँ आना जाना
सुबह से देर रात
तक लगा रहता है
भीड़ है उतरने वालों की
चढ़ने वाले भी कम नहीं
बस स्टॉप पर
दो पल के लिए रुकती है
फिर दूसरी आ जाती
जिन्दगी अपनी रफ्तार
यूँही चलती रहती है
न जाने कितने
आते जाते कितने दिल मिलते हैं
कितनों के टूटे जाते हैं
सपने यहाँ बनते है
बिखर जाते हैं
एक बाबा यहीं
सोता है सरद रातों में
ठिठुरा करता है
तरस खा कभी कोई कुछ दे देता है
इस तरह गुजारा
उसका होता है
बहुत सपने संजोए आया था
गांव अपना छोड़
काम करूँगा आगे बढूँगा
एक भी स्वप्न पूरा न हुआ
चलती फिरती लाश हो गया
न जाने कब आस पूरी होगी
जो अधूरी सी है अधूरी ही रहेगी
अबके जाड़ा न कटेगा
बस स्टॉप से ही
आखिरी टिकट कटेगा
फर्क न कोई भी महसूस करेगा
कोई आये या जाये
जीवन है बस ऐसे ही चला करेगा
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
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