Friday, October 31, 2014

बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी

कलम से____
बाहर खिड़की के नज़र जो पड़ी
लगा कुहासी सुबह हो गई
कुछ देर बाद पता यह लगा
मुगालता था यह मेरा
सुबह अपनी खराब हो गई
स्माग है, जो कोहरा सा लग रहा
भ्रमित जो हमें कर रहा।
कार का दरवाजा खोलने लगा
पता यह चला रात बूँद कुछ गिर गईं
कार के बोनट समेत शीसों पर धूल के
हस्ताक्षर जो छोड़ गईं।
बाग में घूमने का आनंद भी मिट गया
स्माग के कारण खांसने जो लगा
खासंने से याद आ गया
मान्यवर खांसीराम केसरी
हमारे मोहल्ले में फिर आगए हैं
कौशांबी में भूलेभटके
भगवान इसलिए पधार गए हैं
मोदीजी की सरकार को सुप्रीमकोर्ट में फटकार क्या लगी
मफलर लगा खासंने के दिन फिर जो इनके आ गए हैं।
पालिटिक्स देश की फिर गरमा गई है
दिल्ली के चुनाव में लगता है देर अभी है।
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
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