कलम से____
आज उमराव कोठे से उतर रही है
घर अपने वो नये जा रही है
बैलगड़िया नीचे आ गई है
मलिकिन, चलो अब देर हो रही है
आवाज गाड़ीवान की नीचे से आ रही है
आइने की धूल हटा उमराव
आखिरी बार खुद को आइने में देखती है
पोटली सामान की हाथ उठा
जीने की ओर बढ़ती है
जीने से नीचे जाने तक का सफर लम्बा है
तय तो आखिर करना है
न जाने मुआ वो कौनसा मनहूस दिन था
जिस हादसे ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया था
याद कर उस मनहूस दिन को मेरा दिल आज भी बैठता है
जीने से ऊपर क्या गई
लौट नीचे कभी न पाई।
आज मैं, उमराव, इस नाम को लेकर नीचे उतरूँगी
दुबारा कभी इस जीने पर
कोई और बदनसीब न लाई जाए
खुदा से दुआ ये कँरूगी।
कितने हसीन ख्वाब यहां बन गए
कितने बन कर टूट गए
सबकी याद दिल में बसा
जीने से नीचे जा रही हूँ
एक एक सीढ़ी उतर रही हूँ
पैर कहीं मेरा फिसल न जाए
ख्याल इसका रख रही हूँ
इस बार फिसल अगर गई
दुबारा उठ न सकूंगी कभी
टूटी हुई हड्डियां लेकर
मैं गावं अपने कैसे लौटूंगी
जिन्दगी कैसे आगे की जिऊँगी
आखिरी सीढ़ी तक
जिन्दगी आखिर आ ही गई
मेरी जिन्दगी एक पायदान औ' चढ़ गई।
चलो, गाड़ीवान, गड़िया चलाओ तुम
सफर बहुत लम्बा है
रास्ता टेढ़ा ,मेढ़ा और काँटों भरा है
चलो जल्दी चलो
इस गली, मुहल्ले में
अब मेरा दम घुटता है।
एक नये आसमां की तलाश में
चलो गाड़ीवान जल्दी चलो
मुझे किसी से मिलना है
वक्त पर पहुँची अगर नहीं
फिर मैं मिल न सकूँगी कभी।
हाँ, मलिकिन, चलो बस यहाँ से चली चलो।
//surendrapal singh//
08 06 2014
http://1945spsingh.blogspot.in/
and
http://spsinghamaur.blogspot.in/ — with Puneet Chowdhary.
आज उमराव कोठे से उतर रही है
घर अपने वो नये जा रही है
बैलगड़िया नीचे आ गई है
मलिकिन, चलो अब देर हो रही है
आवाज गाड़ीवान की नीचे से आ रही है
आइने की धूल हटा उमराव
आखिरी बार खुद को आइने में देखती है
पोटली सामान की हाथ उठा
जीने की ओर बढ़ती है
जीने से नीचे जाने तक का सफर लम्बा है
तय तो आखिर करना है
न जाने मुआ वो कौनसा मनहूस दिन था
जिस हादसे ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया था
याद कर उस मनहूस दिन को मेरा दिल आज भी बैठता है
जीने से ऊपर क्या गई
लौट नीचे कभी न पाई।
आज मैं, उमराव, इस नाम को लेकर नीचे उतरूँगी
दुबारा कभी इस जीने पर
कोई और बदनसीब न लाई जाए
खुदा से दुआ ये कँरूगी।
कितने हसीन ख्वाब यहां बन गए
कितने बन कर टूट गए
सबकी याद दिल में बसा
जीने से नीचे जा रही हूँ
एक एक सीढ़ी उतर रही हूँ
पैर कहीं मेरा फिसल न जाए
ख्याल इसका रख रही हूँ
इस बार फिसल अगर गई
दुबारा उठ न सकूंगी कभी
टूटी हुई हड्डियां लेकर
मैं गावं अपने कैसे लौटूंगी
जिन्दगी कैसे आगे की जिऊँगी
आखिरी सीढ़ी तक
जिन्दगी आखिर आ ही गई
मेरी जिन्दगी एक पायदान औ' चढ़ गई।
चलो, गाड़ीवान, गड़िया चलाओ तुम
सफर बहुत लम्बा है
रास्ता टेढ़ा ,मेढ़ा और काँटों भरा है
चलो जल्दी चलो
इस गली, मुहल्ले में
अब मेरा दम घुटता है।
एक नये आसमां की तलाश में
चलो गाड़ीवान जल्दी चलो
मुझे किसी से मिलना है
वक्त पर पहुँची अगर नहीं
फिर मैं मिल न सकूँगी कभी।
हाँ, मलिकिन, चलो बस यहाँ से चली चलो।
//surendrapal singh//
08 06 2014
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