Monday, December 1, 2014

दिल्ली का अपना कुछ भी नहीं

कलम से_____
पता नहीं कैसे यह सिलसिला शुरू हुआ
किसने कहा कैसे प्रचलित हुआ
दिल्ली का अपना कुछ भी नहीं
न गरमी
न सरदी
न बरसात
जो भी होता है वह आसपास
राज्यों से प्रभावित होता है
मसलन राजस्थान की धरती गरम हुई तो दिल्ली भी गरमागई
उत्तराखंड में बारिश हुई तो दिल्ली भीग गई
हिमाचल में बरफ गिरी तो दिल्ली ठंडी हो गई
यहाँ तक कि मुगलिया सल्तनत भी आगरे में ही रही
दिल्ली को रुतबा ए हिंद का मिला भी जब सूर्य हुआ अस्त
खुदा की मेहरबानी रही अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली को देश की राजधानी बना दिया
कहीं कलकत्ता बन जाती कैपिटल
तो खेला कुछ दूसरा ही होता।
एक बात तो मुझे भी
नजर आती है
दिल्ली दिल वालों की है
कुछ बहुत जल्दी बदल जाती है
दिन में कुछ
औ' रात को कुछ और हो जाती है।
कुछ अरसे की ही तो बात है
पोशाक बदल ली
हुस्न की दुकान बदल ली
बाजार बदल लिए
यहाँ तक कि भाषा भी बदल ली
कभी उर्दू का बोलवाला रहा
फिर अग्रेजी पकड़ ली
पंजाबी आये तो पंजाबी अपना ली
अब पुरबिया आगइल हैं तो भोजपुरी अपना ली
अच्छा लगता है परिवर्तन
देश जनहित को दर्शाता है
सही मायने में दिल्ली
दिल वालों की लगती है
पूरे देश की लगती है।
गुस्सा है भरा हुआ
सडकों पर बिखरा हुआ
चलते फिरते पंगा ले लेना
एक आम बात है
वह यहां के डीएनए में है
तीन सौ साल ही हुए अभी
तीन सौ और लगेंगे
तब जाकर यह बदलेगा
तब तक यह लोगां को
गुस्सा, यह झेलना ही होगा।
जैसी भी है अच्छी है
दिल्ली अपनी सी है
एनसीआर भी जुडने की कोशिश में है
कृपादृष्टि बस सरकार की होना वाकी है।
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
— with Puneet Chowdhary.
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