Friday, March 27, 2015

आस का इक दीपक जला तो दीजिए।



कलम से____

उस पार हो तुम, इस पार खड़े है हम
फासलों की दीवार गिरा तो दीजिये।

नश्तर-सी चुभन देती है ये खामोशी तुम्हारी
मुस्कुराकर ज़रा लबों को हिला तो दीजिए।

प्यासे खड़े हैं मुद्दत से दर पे आपके
इक जाम हमें होठों से पिला तो दीजिए।

मुरझा गया है चमन हमारी हसरतों का
बहार बनके आइये इस गुल को खिला तो दीजिए।

उल्फ़त न सही नफ़रत कबूल है मगर
आस का इक दीपक जला तो दीजिए।

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/



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