Monday, March 16, 2015

टूटते कंगूरों में



कलम से____
टूटते कंगूरों में
महलों की दीवारों में
किले की अटारी में
छिपी हैं-
कहानियाँ दर्दनाक
मज़बूर हसरतों की.....
सूखे कछारों में
टूटे कगारों में
छिपी हैं-
उदंड नदी की भयाहवता
उसका हाहाकरी ठहाका....
बच्चों, बूढों का
असहाय चीखना
हाथ-पैर मारना
डूबते लोगां का आर्तनाद....
सूखी रेत पर
लहरों के निशानों पर
बहे चूके गावों की संस्कृति
उनका इतिहास....
विनाश लीला के पीछे
पसरी हुई स्तब्धता
स्मरण कराती हुई
बीते हुए कल की
और
एकांत क्षणों में
आती है दूर से
बिलखती हुई
किसी अबोध की आवाज़....
हाय ! हाय ! कल कल.....
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
— with Puneet Chowdhary.
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  • Dinesh Singh वाह बहुत ही खूबसूरत
    23 hrs · Like
  • Ram Saran Singh आदरणीय समय का प्रचण्ड प्रहार वर्तमान को इतिहास बना देता है और आने वाली पीढ़ी बरबादी पर आँसू सिर्फ़ आँसू बहाती है । संसार की सभ्यताएँ ज़मींदोज़ हो गईं पर एक बात है ध्वंस में निर्माण के बीज छिपे होते हैं और समय पर अंकुरित हो कर विशाल सभ्यता का वटवृक्ष बनते हैं । बहुत चिंतनशील रचना । धन्यवाद ।
    23 hrs · Unlike · 2
  • Rp Singh अदभुत
    23 hrs · Unlike · 1
  • Harihar Singh बहतरीन प्रस्तुति
    23 hrs · Unlike · 1
  • Puneet Chowdhary Behtreen
    22 hrs · Unlike · 1
  • Neelesh B Sokey बहुत खूब सर!
    22 hrs · Unlike · 1
  • Madhvi Srivastava amazing poem
    20 hrs · Unlike · 1

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