Friday, August 28, 2015

टूटती सांसों के सहारे कौन जिंदा रहता है......



कलम से____

चराग बुझते ही
हर शाम दिल में
एक धुआँ सा उठता है
नज़र के सामने
अंधेरा छा जाता है
अंतस में तीर सा चुभ जाता है......
तनहाई में
कुछ खो जो गया है
ढूँढा करती हूँ
बिस्तर के किनारे
कभी सिरहाने
कभी पैतियाने......
टूट कर अलग हो जाते
शाख़ से सूखे पत्ते
दूर चले जाते
आंधी में उड़ जाते
रुकना भी चाहें
रुक नहीं पाते.......
मुड़ के कौन देखता है
चाहत जिसकी वाकी हो
वो ही मुड़ता है
कहाँ छूट गई परछाईं
तलाश उसकी करता है......
टूटती सांसों के सहारे
कौन जिंदा रहता है......

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
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