कलम से....
........आग धधकती रहे........
बटलोई की बनी उढ़द की दाल,
देशी घी मे लगा हींग का छौंक,
चूल्हे पर सिकी फूली-फूली रोटी,
अरहर की सूखी,
लकडियों की,
धधकती आग जलती रहे और,
आग कम पड़ने लगे,
तो फूँकनी से फूँकना,
अम्मा की आँखो का धुआँ से पिराना,
मुछे याद है,
चूल्हे की आग धधकती रहे,
याद है, मुछे सब याद है ।
देशी घी मे लगा हींग का छौंक,
चूल्हे पर सिकी फूली-फूली रोटी,
अरहर की सूखी,
लकडियों की,
धधकती आग जलती रहे और,
आग कम पड़ने लगे,
तो फूँकनी से फूँकना,
अम्मा की आँखो का धुआँ से पिराना,
मुछे याद है,
चूल्हे की आग धधकती रहे,
याद है, मुछे सब याद है ।
आग कोई सीने में धधकती रहे,
मुझे याद है ।
मुझे याद है ।
माँ तो चली गयी,
उसको भी तो कर दिया था,
आग के हवाले,
धधकती आग के हवाले,
धधकती आग सीने आज भी है,
याद उसकी आती रहे,
मुझे याद है,
आग कोई सीने में है जो धधकती रहे,
मुछे याद है,
मुछे याद है ।
उसको भी तो कर दिया था,
आग के हवाले,
धधकती आग के हवाले,
धधकती आग सीने आज भी है,
याद उसकी आती रहे,
मुझे याद है,
आग कोई सीने में है जो धधकती रहे,
मुछे याद है,
मुछे याद है ।
(हम लोग गाँव, गर्मी की छुट्टियों मे ही जा पाते और जितने दिन भी वहाँ रहते, खूब मौज करते थे।
थोड़ा-बहुत उस गुजरे वक्त का जो याद है, उसे ही पिरोया है । आप सभी को अच्छी लगे तो मै धन्य समझूँगा।
ग्रामीण अंचल की बातें है, जिस किसी ने इन्हें जिया है, उनको पसंद आऐगा।)
©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/
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